सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का,
यही तो वक़्त है सूरज तेरे निकलने का
ऐ दिल की ख़लिश चल यूँ ही सहीं
चलता तो हूँ उन की महफ़िल में
उस वक़्त मुझे चौंका देना
जब रँग में महफ़िल आ जाए
वो ख़लिश जिस से था हंगामा-ए-हस्ती बरपा
वक़्त-ए-बेताबी-ए-ख़ामोश हुई जाती है