सुकून की बात मत कर ऐ ग़ालिब !
बचपन वाला इतवार अब नहीं आता !!
शौक तो माँ-बाप के पैसो से पूरे होते हैं !
अपने पैसो से तो बस ज़रूरतें ही पूरी हो पाती हैं !!
एक सवेरा था जब हँस कर उठते थे हम !
और आज कई बार बिना मुस्कुराये ही शाम हो जाती है !!
क्यूँ वक़्त के साथ रंगत खो जाती है !
हँसती-खेलती ज़िन्दगी भी आम हो जाती है !!