बेजान राखी!
आज साक्षी की खुशी का ठिकाना नहीं था। सुबह-सुबह सूरज की किरणें उसके कमरे में पड़ते ही वो हर्षोल्लास के साथ अपने बिस्तर से उठी और बिस्तर के पास रखी हुई चप्पल को पहनकर नींद से भरी आँखें मलती हुई वो कमरे से बाहर आयी। अम्मा ने उसको आते देखा तो वो मुस्कुरा पड़ीं और साक्षी को ज़ोर से गले लगाया। नींद से भरी थीं उसकी आँखें अब भी पर उस दिन के महत्व के आगे उसकी नींद बहुत छोटी मालूम होती थी।
"अम्मा! चल ना बाज़ार चलते हैं।"
"नाश्ता करके चलते हैं। इतनी जल्दी क्या है?"
"नहीं, अम्मा चलो ना," साक्षी ने बच्चों वाली ज़िद्द करी।
"अरे लड़की थम जा, खाले कुछ, पहले। बाज़ार भागा थोड़ी जा रहा है," अम्मा हँसते हुए बोली।
साक्षी अपना मुँह फुला के कुर्सी पर बैठ गई मानो किसी ने उसके मुँह में दो लड्डू डाल दिए हों। उसका मुँह बिल्कुल गेंद की तरह गोल और गुस्से में लाल हो गया था। अम्मा रसोईघर में खाना पका रही थी और उस खाने की खुशबू ने साक्षी के टमाटर जैसे मुँह को थोड़ा शांत किया।
"अम्मा! आज भैये के पसंद के पकवान बना रही हो?" साक्षी का उत्सुकता भरी आवाज़ में सवाल आया।
"हाँ, क्यों? तुझे कुछ और खाना है?"
"बस हमेशा अपनी चलाता है वो। आज उसका दिन है तो अपने पसंद के ही सारे पकवान खाएगा क्या? ख़ैर, छोड़ो ! माफ़ किया उसे, उसका दिन है आज।"
अम्मा बातें सुनकर थोड़ा हँस पड़ी और पकवान बनाने में लग गई। नाश्ता करके दोनों माँ-बेटी तैयार हुए और बाज़ार की ओर रवाना हो गए। हर तरफ मिठाई , कपड़े और राखियों का जमावड़ा लगा हुआ था। छोटे-छोटे बच्चे बड़ी खुशी से बाज़ार देख रहे थे, उनकी आँखों में एक अलग ही चमक थी। ऊपर आसमान में कुछ पतंगें भी दिख रही थीं, और हर तरफ दुकान के बैनर लटके हुए थे। हर जगह ऑफ़र्स के नाम पर भीड़ को आकर्षित किया जा रहा था। भीड़ बहुत थी पर कोई परेशानी में नहीं दिख रहा था। राखियों की बिक्री तो ऐसे हो रही थी मानो कोई मुफ़्त में बाँट रहा हो। ऐसे ही किसी दुकान पर साक्षी और अम्मा राखी देखने गए।
साक्षी उत्साह से भरी उछल-कूद रही थी। इतनी राखियाँ देख कर उसका सब लेने का मन कर रहा था। अम्मा को उम्मीद भरी आँखों से देख रही थी मानो कह रही हो कि सबसे अच्छी राखी लेना भैया के लिए।
साक्षी हमेशा से एक राखी और एक धागा लिया करती थी मानो अपने भैया को कहना चाहती हो की मेरी डबल रक्षा करना। उस दिन भी उसने यही किया।
"चाचा ! ये राखी और ये धागा, दोनों पैक कर दो। आज मेरे भैया घर आने वाले हैं। कल उन्हें राखी बाँधूँगी और बहुत सारे पैसे लूटूंगी।"
ये बात सुनकर अम्मा और दुकान वाला चाचा ज़ोर से हँस पड़े। अम्मा ने चाचा को पैसे दिए और दोनों घर की तरफ बढ़ चले। थोड़ी दूर चलते ही एक पुलिस का दस्ता बाज़ार पर कड़ी निगरानी करता दिखा।
"अम्मा! ये लोग इतनी छानबीन क्यों कर रहे हैं?" साक्षी के माथे पर एक अजीब सी शिकन थी।
"पता नहीं बेटा! फिर से कुछ हुआ होगा!"
साक्षी से रहा नहीं गया, उसने पुलिस वाले अंकल से जाकर पूछा, "अंकल इतनी छानबीन क्यों?"
"अभी-अभी आतंकी हमला हुआ है, तो सारा शहर हाई अलर्ट पर है, आप लोग जल्दी से घर पर जाइए।"
साक्षी का दिल धड़कने लगा। घर जाते ही उसने टीवी चलाया तो पता लगा कि कुछ जवान एक हमले में शहीद हो गए हैं। एक-एक करके शहीदों के नाम स्क्रीन पर दिखने लगे।
"शहीद मेज़र अनूप सिंह अपने देश की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।"
वो नाम और तस्वीर देख कर साक्षी के हाथ से राखी का पैकेट नीचे गिर गया और वो राखी बेजान हो गई। अम्मा घुटने के बल नीचे बैठ गई और ज़ोर ज़ोर से रोने लगी।
"ऐ मेरे वतन के लोगों! जरा आँख में भर लो पानी। जो शहीद हुए हैं उनकी, ज़रा याद करो क़ुर्बानी।" ये गाना टीवी पर गूँजने लगा और साक्षी ने अपने अम्मा के कंधे पर हाथ रखा और बड़े ज़ोर से बोला, "जय हिन्द!"
सिर्फ़ 14 साल की साक्षी उठी और उस बेजान पड़ी राखी को उठाया और उस धागे को भी और उन्हें लेकर अकेले ही बाहर निकल पड़ी। उसके घर के पास मिलिट्री कैंप था। उसने मंदिर से 10-10 रुपए के धागे खरीदे और कैंप में जाकर हर फौजी के हाथ में वो धागे बाँधे। एक वो आज था और एक ये आज है।
साक्षी 22 बरस की हो गई है और वो 8 साल से इसी कैंप में जाकर हर फौजी भाई को राखी बाँधती है। पर वो 8 साल पहले खरीदी हुई राखी आज भी घर में उसके कमरे में रखी अलमारी के बक्से में बंद पड़ी है, बिल्कुल बेजान।
~राहुल छाबड़ा
Credit : The Anonymous Writer हिंदी